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ग़ज़ल
उन शीशों के रेज़ों का मरहम है अपने ज़ख़्मों पर
लम्हा लम्हा जो टूटे तलवारें चलते वक़्त बहुत
अख्तर लख़नवी
ग़ज़ल
तरद्दुद बर्क़-रेज़ों में तुम्हें करने की क्या हाजत
तुम्हें काफ़ी है हँसता देख लेना मुस्कुरा देना