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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ऐ ज़ुल्फ़ फैल फैल के रुख़्सार को न ढाँक
कर नीम-रोज़ की न शह-ए-मुल्क-ए-शाम हिर्स
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
'आशिक़ान-ए-ज़ुल्फ़-ए-जानाँ के 'अजब अतवार हैं
ख़ुद गिरफ़्तार-ए-बला हों ख़्वाहिश-ए-रम भी करें
शकील इबन-ए-शरफ़
ग़ज़ल
क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़ की क़िस्मत में है रुख़्सार की सैर
शुक्र है बाग़ भी है मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
दिल की चोरी में जो चश्म-ए-सुर्मा-सा पकड़ी गई
वो था चीन-ए-ज़ुल्फ़ में ये बे-ख़ता पकड़ी गई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
चाहने वालों का करता है ज़माना मातम
मातमी रंग में है ज़ुल्फ़-ए-रसा मेरे ब'अद
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
कैसे टेढ़ा न चले मार बड़ी मुश्किल है
सीधी हो ज़ुल्फ़-ए-गिरह-दार बड़ी मुश्किल है
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
एक दीवाने को इतना ही शरफ़ क्या कम है
ज़ुल्फ़ ओ ज़ंजीर से यक-गूना शग़फ़ क्या कम है
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
है आज और ही कुछ ज़ुल्फ़-ए-ताबदार में ख़म
भटकने वाले को मंज़िल का रास्ता तो मिला