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ग़ज़ल
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
ग़ज़ल
माशूक़-ए-जावेदाँ को रिझाने के वास्ते
कपड़ों से बढ़ के क़ल्ब-ओ-जिगर पाक-साफ़ रख
मोहम्मद शफ़ी सीतापूरी
ग़ज़ल
दो दिन में हम तो रीझे ऐ वाए हाल उन का
गुज़रे हैं जिन के दिल को याँ माह-ओ-साल बाँधे
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
गले में ज़िंदगी के रीसमान-ए-वक़्त है तो क्या
परिंदे क़ैद में हों तो बहुत हुश्यार होते हैं
अब्बास क़मर
ग़ज़ल
कुछ ऐसे भी तो हैं रिंदान-ए-पाक-बाज़ 'जिगर'
कि जिन को बे-मय-ओ-साग़र पिलाई जाती है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
राज़-ए-दरून-ए-पर्दा ज़े-रिंदान-ए-मस्त पुर्स
सालिक है क्यूँ हिजाब-ए-शुहूद-ओ-वजूद में