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ग़ज़ल
जीत का पड़ता है जिस का दाँव वो कहता हूँ मैं
सू-ए-दस्त-ए-रास्त है मेरे कोई फ़र्ख़न्दा-पय
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
वस्ल ओ हिज्राँ में तनासुब रास्त होना चाहिए
इश्क़ के रद्द-ए-अमल का मसअला छेड़ूँगा मैं