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ग़ज़ल
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ग़ज़ल जब ताज़ा कहता हूँ पुरानी भूल जाता हूँ
फ़साना लिखने बैठूँ तो कहानी भूल जाता हूँ
शाह रूम ख़ान वली
ग़ज़ल
वाक़ई बोलने से अपने लड़ा बैठे जो आँख
क्यूँ ख़ुदी से न करे फेर वो रम या माबूद
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अगर है अज़्म रूम-ओ-ज़ंग की तस्ख़ीर का बारे
कुमक तुम अँखड़ियों अपनी की नादिर-शाह से माँगो
वलीउल्लाह मुहिब
ग़ज़ल
हम तो हैं फ़क़त दिल-ज़दा-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा
रम हम से अबस करते हो ऐ ज़ोहरा-निगाहो!