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ग़ज़ल
मुझे शबनम बना रक्खा है इन ख़ुर्शीद-रूयों ने
रुलाते हैं निहाँ हो कर मिटाते हैं अयाँ हो कर
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
तितलियाँ देखी हैं बैठी ख़ुश्क फूलों पर कभी
हाजतें अपनी करो तुम ख़ूब-रूओं से बयाँ
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
शम्अ जब मज्लिस से महरुओं की लेती है उठा
क्या कहूँ क्या क्या सुनें उस वक़्त दिखलाती है सुब्ह
ताबाँ अब्दुल हई
ग़ज़ल
माह-रूओं से मोहब्बत तो सरासर है सितम
नाज़नीनों पे कहीं ज़ुल्म रवा होता है
अब्दुल क़ादिर अहक़र अज़ीजज़ि
ग़ज़ल
हम तो अक़्ल-ओ-होश के 'नामी' के क़ाइल हैं कि ये
उम्र भर हुस्न-ए-परी-रूयों का दीवाना रहा
हस्सामुद्दीन हैदर नामी
ग़ज़ल
शम्अ'-रूयों से नहीं उमीद-ए-दाद-ए-सोज़-ए-इश्क़
ये ग़नीमत है समझ लें अपना परवाना मुझे
ज़ब्त सीतापुरी
ग़ज़ल
मैं दिल पर चोट खाऊँ उन परी-रूयों के हाथों से
मुझे नुस्ख़ा अगर कोई बता दे मोम्याई का
मास्टर बासित बिस्वानी
ग़ज़ल
लिखी तौसीफ़ चुन चुन कर परी-रूयों के तिल तिल की
नज़र आती है नुक़्ते नुक़्ते से वहशत मिरे दिल की