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ग़ज़ल
क्या त'अज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे
पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
रौनक़ ही नहीं उस की हम रूह-ओ-रवाँ भी हैं
लेकिन हमें दुनिया की ख़ातिर पे गराँ भी हैं
अख्तर लख़नवी
ग़ज़ल
मोहब्बत का रग-ओ-पै में मिरी रूह-ए-रवाँ होना
मुबारक हर नफ़स को इक हयात-ए-जावेदाँ होना
अलीम अख़्तर मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
किसी बर्क़-ए-तजल्ली पर ज़रा सा ग़ौर कर लेना
अगर ये जानना हो आलम-ए-रूह-ए-रवाँ क्या था
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
मैं कब हूँ ये मिरा तन-ए-बे-जाँ हज़र में है
रूह-ए-रवान-ए-क़ालिब-ए-तन तो सफ़र में है
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जिस्म ने रूह-ए-रवाँ से ये कहा तुर्बत में
अब मुझे छोड़ के तन्हा तू कहाँ जाती है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
सुख़न की बज़्म पे मौक़ूफ़ कुछ नहीं 'तालिब'
रहे हैं रूह-ए-रवाँ हम जिस अंजुमन में रहे