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ग़ज़ल
आशिक़ाँ कहते हैं माशूक़ों से बा-इज्ज़-ओ-नियाज़
है अगर मंज़ूर कुछ लेना तो हाज़िर हैं रूपए
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
कई बरसों से इस पर ही बहस जारी है संसद में
जो भेजा एक रूपे था तो पहुँचा एक आना क्यों
डॉ राकेश जोशी
ग़ज़ल
कुछ महल्ले वाले यूँ आ कर मिरे दर पर रुके
मैं तो समझा लो भई ले जाने वाले आ गए
शाम लाल रोशन देहलवी
ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
जो रुके तो कोह-ए-गिराँ थे हम जो चले तो जाँ से गुज़र गए
रह-ए-यार हम ने क़दम क़दम तुझे यादगार बना दिया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
मुझे अपने रंग में रंग दो मिरे सारे रंग उतार दो