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ग़ज़ल
ग़मों में भी मसर्रत की फ़रावानी नहीं जाती
हमारे ज़ख़्म-ए-दिल की ख़ंदा-सामानी नहीं जाती
तरब सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
न जाने क्यों तरब बार-ए-गराँ होता है मजनूँ को
अगर मैं बात कोई लैला-ए-महमिल से कहती हूँ
इशरत जहाँ तरब
ग़ज़ल
इश्क़ ने जिन को किया ख़ातिर-गिरफ़्ता उन का दिल
लाख होवे गरचे सामान-ए-तरब खुलता नहीं
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
उन की तफ़रीह का सामान-ए-तरब था मैं ही
डॉक्टर लोग हैं जीने से ख़फ़ा मेरे बा'द