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ग़ज़ल
मारें जो सर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस पाँच टुकड़े सर के हों और सिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
सद्र-ए-महफ़िल दाद जिसे दे दाद उसी को मिलती है
हाए कहाँ हम आन फँसे हैं ज़ालिम दुनिया-दारों में
हबीब जालिब
ग़ज़ल
वो जो थे रौनक़-ए-आबादी-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ
सर से पा तक उन्हें ख़ाक-ए-रह-ए-सहरा देखा
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
सदारत के फ़राएज़ जब अदा होने नहीं पाते
अगर मैं तुम को सद्र-ए-अंजुमन कह दूँ तो क्या होगा
शाद आरफ़ी
ग़ज़ल
मय-परस्तों में है यूँ साग़र-ओ-मीना का वक़ार
जैसे इस्लाम में हो मोहतसिब ओ सद्र की क़द्र
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मुझ से ही क़ाएम है अब तक तेरा तहज़ीबी वक़ार
तोड़ मत मुझ को कि घर का सद्र दरवाज़ा हूँ मैं
शाहिद जमाल
ग़ज़ल
'नादिर' इस महफ़िल में हैं वो नाम के सद्र-अंजुमन
आप को कहना हो जो कुछ अहल-ए-मज्लिस से कहें
नादिर काकोरवी
ग़ज़ल
आज तू कल कोई और होगा सद्र-ए-बज़्म-ए-मय
साक़िया तुझ से नहीं हम से है मय-ख़ाने का नाम