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ग़ज़ल
अब पढ़ वो ग़ज़ल 'मुसहफ़ी' तू शुस्ता ओ रफ़्ता
सुनने जिसे ख़ल्क़ आए सफ़ाहाँ से निकल कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
आज भी सैद-गह-ए-इश्क़ में हुसन-ए-सफ़्फ़ाक
लिए अबरू की लचकती सी कमाँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हम-सफ़ीरान-ए-जुनूँ यूँ हम से आगे बढ़ गए
क़ाफ़िला क्या है ग़ुबार-ए-क़ाफ़िला मिलता नहीं
अब्दुल्लतीफ़ शौक़
ग़ज़ल
वक़्त ने ऐसे घुमाए उफ़ुक़ आफ़ाक़ कि बस
मेहवर-ए-गर्दिश-ए-सफ़्फ़ाक से ख़ौफ़ आता है