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ग़ज़ल
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
सरशार सैलानी
ग़ज़ल
क्या बताएँ फ़िक्र क्या है और क्या है जुस्तुजू
हाँ तबीअत दिन-ब-दिन अपनी भी सैलानी हुई
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ग़ज़ल
कौन कहे क़िस्मत पलटी या मत पलटी सैलानी की
रस्ता काट के जाने वाला आज इधर भी भूल पड़ा