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ग़ज़ल
जिस्म नासूरों से सजना ही था तुम ने 'शादाब'
पट्टियाँ धोई थीं ज़ख़्मों को कहाँ धोया था
मुईन शादाब
ग़ज़ल
उन बाहों को याद नहीं क्या उन की ज़िम्मे-दारी थी
इस तन को भी याद नहीं है क्यों हम सजना भूल गए
डॉ अंजना सिंह सेंगर
ग़ज़ल
मोहब्बत का ये पहनावा हमारे तन पे सजना है
हम इस कुर्ते की कफ़ से फ़ालतू धागा निकालेंगे
फ़ैसल ख़य्याम
ग़ज़ल
जो मैं सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
तिरा दिल तो है सनम-आश्ना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया