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ग़ज़ल
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इक रात तो क्या वो हश्र तलक रक्खेगी खुला दरवाज़े को
कब लौट के तुम घर आओगे सजनी को बताओ इंशा-जी
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
ये तो मानती हूँ 'सजनी' कि मिली हो बाद मुद्दत
मुझे इस क़दर न भींचो मिरा दम निकल न जाए