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ग़ज़ल
बजा कि अब बाल तो सियह हैं मगर बदन में सकत नहीं है
शबाब लाया ख़िज़ाब लेकिन ख़िज़ाब लाया शबाब आधा
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
सकत बाक़ी नहीं है क़ुम बे-इज़्निल्लाह कहने की
मसीहा भी हमारे दौर के बीमार कितने हैं
अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
ग़ज़ल
तिरे हिज्र ने अता की ये अजीब बे-क़रारी
न सकत है ज़ब्त-ए-ग़म की न मजाल-ए-अश्क-बारी
सरफ़राज़ बज़्मी
ग़ज़ल
शमशाद शाद
ग़ज़ल
मर्द-ए-मैदान-ए-मोहब्बत है तो ऐ रुस्तम निकल
कुछ सकत हो तो कमान-ए-अबरू-ए-ख़मदार खींच
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
और एक बार क़ल्ब को तड़पाए वो निगाह
इतनी सकत अभी तो हमारे जिगर में है