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ग़ज़ल
'सलाम'-ए-सोख़्ता-क़िस्मत की महफ़िल है अजब महफ़िल
सितारा सुब्ह का बन कर चराग़-ए-शाम आता है
सलाम सागरी
ग़ज़ल
क़ैद है बीते वो लम्हे यादों के अंदाज़ में
रोज़ उन से तज़्किरा ग़म का सहारा बन गया
रोज़िना तराणेकर दिघे
ग़ज़ल
सहारा बन नहीं पाते भले ख़ुद-ग़र्ज़ कुछ बच्चे
मुसीबत हो मगर इन पे तो माँ ग़मगीन होती है
डॉ भावना श्रीवास्तव
ग़ज़ल
जो वालिद का बुढ़ापे में सहारा बन नहीं सकता
जो सच पूछो तो हो लख़्त-ए-जिगर अच्छा नहीं लगता