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ग़ज़ल
हैरत है कि इस दौर-ए-कुदूरत के सलातीं
हम अहल-ए-मोहब्बत को सज़ा क्यूँ नहीं देते
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
तख़्त और चित्र सलातीं को मुबारक होवे
बस है कूचे में तिरे साया-ए-दीवार मुझे
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
ग़ज़ल
सलातीं को नहीं पाता मिज़ाज उन के फ़क़ीरों का
कि अन्क़ा-ए-फ़लक-परवाज़ है क़ाफ़-ए-क़नाअत का
बयान मेरठी
ग़ज़ल
जाने किस रंग से आई है गुलिस्ताँ में बहार
कोई नग़्मा ही नहीं शोर-ए-सलासिल के सिवा