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ग़ज़ल
हुस्न-ए-नज़र-फ़रेब में किस को कलाम था मगर
तेरी अदाएँ आज तो दिल में समा के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
सलाम उस पे कि जिस ने उठा के पर्दा-ए-दिल
मुझी में रह के मुझी में समा के लूट लिया
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
शाएर-ए-फ़ितरत हूँ जब भी फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं
रूह बन कर ज़र्रे ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे