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ग़ज़ल
क्या हुई तक़्सीर हम से तू बता दे ऐ 'नज़ीर'
ताकि शादी-मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
दार पर चढ़ कर लगाएँ नारा-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम
सब हमें बाहोश समझें चाहे दीवाना कहें
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
हम तो रात का मतलब समझें ख़्वाब, सितारे, चाँद, चराग़
आगे का अहवाल वो जाने जिस ने रात गुज़ारी हो
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हम तो जब समझें कि हाँ दिल पे है क़ाबू 'बेदम'
वो तुझे भूल गए तो भी उन्हें याद न कर