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ग़ज़ल
ग़म के अँधियारे में तुझ को अपना साथी क्यूँ समझूँ
तू फिर तू है मेरा तो साया भी मेरे साथ नहीं
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए'तिबार नहीं
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
बुरा समझूँ उन्हें मुझ से तो ऐसा हो नहीं सकता
कि मैं ख़ुद भी तो हूँ 'इक़बाल' अपने नुक्ता-चीनों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
है ये क़िस्सा कितना अच्छा पर मैं अच्छा समझूँ तो
एक था कोई जिस ने यक-दम ये दुनिया पैदा की थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
गो न समझूँ उस की बातें गो न पाऊँ उस का भेद
पर ये क्या कम है कि मुझ से वो परी-पैकर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुझ से इरशाद ये होता है कि समझूँ उन को
और फिर भीड़ में दुनिया की वो खो जाते हैं
अमीता परसुराम मीता
ग़ज़ल
तुझे देखूँ कि तेरे इल्तिफ़ात-ए-नर्म को समझूँ
मोहब्बत भी तिरे जल्वों में पहचानी नहीं जाती
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
बहार अंजाम समझूँ इस चमन का या ख़िज़ाँ समझूँ
ज़बान-ए-बर्ग-ए-गुल से मुझ को क्या इरशाद होता है
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
किसे आबाद समझूँ किस का शहर-आशोब लिक्खूँ मैं
जहाँ शहरों की यकसाँ सूरत-ए-हालात होती है