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ग़ज़ल
कुछ सनअत ओ हिरफ़त पे भी लाज़िम है तवज्जोह
आख़िर ये गवर्नमेंट से तनख़्वाह कहाँ तक
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ज़रा देखो तो ऐ अहल-ए-सुख़न ज़ोर-ए-सनाअत को
नई बंदिश है मजनूँ नूर के साँचे में ढलते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
हुस्न-ए-नज़र की आबरू सनअत-ए-बरहमन से है
जिस को सनम बना लिया उस को ख़ुदा बना दिया
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
नहीं ख़याल सिवा उस के और है दिल में
जो मकतब इश्क़ में जैसे पढ़ा सनम की किताब
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
कोई मेरी ख़ता है या तिरी सनअ'त की ख़ामी है
फ़रिश्ते कह रहे हैं आदमी से कुछ नहीं होता
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
क्यूँ जानते हैं सनअत-ओ-हिरफ़त को बाग़-ए-ख़ुल्द
ग़ैरों की हम निगाह में हैं ख़ार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
दीद-ए-सनअ'त से है याँ ग़ायत-ए-दीद-ए-सानेअ'
ऐ बुतो शेफ़्ता-ए-हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद हैं हम