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ग़ज़ल
एक निगाह का सन्नाटा है इक आवाज़ का बंजर-पन
मैं कितना तन्हा बैठा हूँ क़ुर्बत के वीराने में
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
उफ़ ये सन्नाटा कि आहट तक न हो जिस में मुख़िल
ज़िंदगी में इस क़दर हम ने सुकूँ पाया न था
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबाँ का 'जालिब'
चारों जानिब सन्नाटा है दीवाने याद आते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
भरी दुनिया में तन्हा बे-सहारा देख कर ख़ुद को
कोई मासूम रोता है तो पत्थर चीख़ उठता है
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
उफ़ ये सन्नाटा ये तारीकी ये तन्हाई का ख़ौफ़
तेरे बिन जीते ही जी है मर चुका कमरे में वो