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ग़ज़ल
वो जो महव थे सर-ए-आइना पस-ए-आइना भी तो देखते
कभी रौशनी में वो तीरगी को छुपा हुआ भी तो देखते
नजमा ख़ान
ग़ज़ल
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है
सलीम कौसर
ग़ज़ल
ऐ 'अना' तुम मत गिराना अपने ही किरदार को
उन को कहने दो कि ख़ुद-दारी कहाँ आ गई