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ग़ज़ल
ख़्वाब-सरा-ए-ज़ात में ज़िंदा एक तो सूरत ऐसी है
जैसे कोई देवी बैठी हो हुजरा-ए-राज़-ओ-नियाज़ में चुप
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
सरा-ए-दहर में ताँता बँधा है कारवानों का
अदम का ऐ 'वफ़ा' रस्ता इसी मंज़िल से मिलता है
मेला राम वफ़ा
ग़ज़ल
हो गया मेहमाँ-सरा-ए-कसरत-ए-मौहूम आह!
वो दिल-ए-ख़ाली कि तेरा ख़ास ख़ल्वत-ख़ाना था
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
बुतों को महरम-ए-असरार तू ने क्यूँ किया या रब
कि ये काफ़िर हर इक ख़ल्वत-सरा-ए-दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
वक़्त ऐसा हम-सफ़र है जिस की मंज़िल है अलग
वो सराए है कि जिस में ठैरता कोई नहीं