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ग़ज़ल
सबा की तरह हर इक ग़ैरत-ए-गुल से हैं लग चलते
मोहब्बत है सरिश्त अपनी हमें याराना आता है
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
इश्क़ की इब्तिदा तो है इश्क़ की इंतिहा नहीं
इश्क़ है वो बक़ा सरिश्त जिस को कभी फ़ना नहीं
राजेन्द्र बहादुर माैज
ग़ज़ल
तिरी आँख से मिरी आँख तक फ़क़त एक मंज़र-ए-ख़ाक है
वही शाम-ए-तीरा-सरिश्त सी मिली मुद्दतों की तलाश में