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ग़ज़ल
हिरा-ओ-सौर से होती हुई ये ला-मकाँ पहुँची
तुम अब भी पूछते हो क्या वफ़ा रस्ता बनाती है
सग़ीर अहमद सग़ीर
ग़ज़ल
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी
इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला
मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊ'र आ जाता है