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ग़ज़ल
जब सब के लब सिल जाएँगे हाथों से क़लम छिन जाएँगे
बातिल से लोहा लेने का एलान करेंगी ज़ंजीरें
हफ़ीज़ मेरठी
ग़ज़ल
मारें जो सर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस पाँच टुकड़े सर के हों और सिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
कितनी उम्मीदों की शमएँ जलते ही बुझ जाती हैं
अब भी अन-चाहे छाती पर धर ही देते हैं सिल लोग
आबिद अदीब
ग़ज़ल
रहने को घर भी मिल जाता चाक-ए-जिगर भी सिल जाता
'जालिब' तुम भी शेर सुनाते जा के अगर दरबारों में