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ग़ज़ल
लोग उट्ठे हैं तिरी बज़्म से क्या क्या हो कर
और इक हम हैं कि निकले भी तो रुस्वा हो कर
रिफ़अत सेठी
ग़ज़ल
नक़ाब-ए-रुख़ उठा कर हुस्न जब जल्वा-फ़िगन होगा
न पूछो क्या क़यामत-ख़ेज़ रंग-ए-अंजुमन होगा
रिफ़अत सेठी
ग़ज़ल
मोहब्बत में वफ़ा वालों को कब ईज़ा सताती है
ये वो हैं जिन को सूली पर भी चढ़ कर नींद आती है
रिफ़अत सेठी
ग़ज़ल
सेठ साहब गिन रहे थे घर में पगड़ी के रूपे
सूँघते जाने कहाँ से थाने वाले आ गए
शाम लाल रोशन देहलवी
ग़ज़ल
यूँही गर लुत्फ़ तुम लेते रहोगे ख़ूँ बहाने में
तो बिस्मिल ही नज़र आएँगे हर सू इस ज़माने में