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ग़ज़ल
हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मैं अदम अंदर अदम मैं हूँ जहाँ अंदर जहाँ
एक ही दुनिया हो मेरी ऐ 'फ़िराक़' ऐसा नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
काश अपने दर्द से बेताब होते ऐ 'फ़िराक़'
दूसरे के हाथों ये हाल-ए-परेशाँ कुछ नहीं