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ग़ज़ल
बहार की सवारियों के हम-रिकाब क्यूँ रहे
ख़िज़ाँ का बर्ग-ओ-बार पर इताब देखता हूँ मैं
सुहैल अहमद ज़ैदी
ग़ज़ल
नज़र उठा के ज़रा देख मुझ को भी साक़ी
सवालियों की तरह तेरी बज़्म-ए-नाज़ में हूँ