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ग़ज़ल
मैं चराग़-ए-शब-ए-हस्ती हूँ ज़िया क्या माँगूँ
ज़िंदा रहना है तो चलने के सिवा क्या माँगूँ
बद्र शम्सी
ग़ज़ल
चराग़ शर्मा
ग़ज़ल
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जिस्म-ए-ख़ाकी तुझ को शीशे की हवेली ही सही
ऐ चराग़-ए-जाँ कभी फ़ानूस के बाहर तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
हम इस लम्बे-चौड़े घर में शब को तन्हा होते हैं
देख किसी दिन आ मिल हम से हम को तुझ से काम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
शब-ए-फ़िराक़ की ज़ुल्मत में ग़म के मारों का
तिरे ख़याल की ताबिंदगी ने साथ दिया
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
'शान' अब हम को तो अक्सर शब-ए-तन्हाई में
नींद आती नहीं और ख़्वाब नज़र आते हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
ये तो सच है कि शब-ए-ग़म को सँवारा तुम ने
चश्म-ए-तर ने भी मिरा साथ निभाया है बहुत