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ग़ज़ल
एक चमकती शय को आख़िर तुम आँसू क्यों समझे हो
दस्त-ए-ख़ुदी में कोई गुहर हो ये भी तो हो सकता है
मोअज़्ज़म अली खां
ग़ज़ल
दिला ये दर्द-ओ-अलम भी तो मुग़्तनिम है कि आख़िर
न गिर्या-ए-सहरी है न आह-ए-नीम-शबी है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
आख़िर दिल की पुरानी लगन कर के ही रहेगी फ़क़ीर हमें
हर रुत आते जाते पाए एक ही शय का असीर हमें
मुख़्तार सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
अबस उलझा के रक्खा है कोई इंसाफ़ भी आख़िर
उमीदें साथ देंगी 'शाद' आख़िर कब तलक तेरा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
धड़कते दिल से इक दूजे की बाँहों में समा जाता
कहो ऐ 'शाद' यही अंजाम आख़िर होता है