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ग़ज़ल
अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुर्क़त में
जो बरसा अब्र-ए-रहमत जा-ए-मय शीशों में भर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
मिल ऐसे मुझ से गुमान हो ला-तअल्लुक़ी का
मैं दोस्ती के लिए बहुत बद-शगुन रहा हूँ
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
मय-कदे में शैख़ का आना शगुन अच्छा नहीं
होश की ले साक़िया रिंदों को बहकाने को है
अब्दुल करीम मजरूह सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
ख़्वाब मेरे यूँ हैं 'ताबिश' जिस तरह पानी पे रेत
ये शगुन अच्छा नहीं है दीदा-ए-नम के लिए
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
शगुन के फूल जले सूरजों के तश्त में हैं
ये किस के अक्स हैं जो आरसी में झाँकते हैं