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ग़ज़ल
'बज़्म' मद्दाह भी है आप का और ज़ाकिर भी
रहम क्यों इस पे नहीं ऐ शह-ए-मर्दां होता
आशिक़ हुसैन बज़्म आफंदी
ग़ज़ल
फ़त्ह दीजो तू उसे या शह-ए-मर्दां कि तिरा
मुल्क-गीरी को जो है अब ये 'सुलैमाँ' निकला
नवाब सुलेमान शिकोह
ग़ज़ल
नसब हो या हसब दोनों मुबारक होवें ज़ाहिद को
तुझे तो है फ़क़त 'मर्दां' शह-ए-अबरार से मतलब
मरदान सफ़ी
ग़ज़ल
ला-फ़ता-इल्ला-अली है शान में जिस की नुज़ूल
दोस्ताँ उस शाह-ए-मर्दां से जवाँ को इश्क़ है