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ग़ज़ल
रग-ए-जाँ में जमने लगा लहू उसे मुश्क बनने की आरज़ू
है उदास दश्त-ए-ततार-ए-दल उसे फिर शलंग-ए-ग़ज़ाल दे
आलमताब तिश्ना
ग़ज़ल
हस्ती अदम से है मिरी वहशत की इक शलंग
ऐ ज़ुल्फ़-ए-यार पाँव की तू बेड़ियाँ न हो
रजब अली बेग सुरूर
ग़ज़ल
अगर होता ज़माना गेसु-ए-शब-रंग का तेरे
मिरी शब-दीज़ सौदा का ज़ियादा-तर क़दम निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग को हम याद किया करते हैं
शब-ए-तारीक में फ़रियाद किया करते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
फ़िक्र को नाज़ुक ख़यालों के कहाँ पहुँचे हैं यार
वर्ना हर मिस्रा यहाँ मा'शूक़ शोख़-ओ-शंग है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
दिल बचे क्यूँकर बुतों की चश्म-ए-शोख़-ओ-शंग से
अपना घर तो सूझता है सैकड़ों फ़रसंग से