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ग़ज़ल
इश्तियाक़-ए-दीद में फ़ानी है सहराओं की रेत
रह-नवर्दी में उभरते ग़म के छालों को भी रोक
ऐश शुजाबादी
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ
हम से अजब तिरा दर्द का नाता देख हमें मत भूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कुछ तो कर दरिया मिरे इन को डुबो या पार कर
कश्तियों ने अपना दुख आब-ए-रवाँ पर लिख दिया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
इक इम्तिहान-ए-वफ़ा है ये उम्र भर का अज़ाब
खड़ा न रहता अगर ज़लज़लों में क्या करता