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ग़ज़ल
रहा है शोर उन का बाइ'स-ए-जंग-ओ-जदल बरसों
कहीं अब ज़िक्र-ए-नाक़ूस-ओ-अज़ाँ बाक़ी न रह जाए
शर्म लखनवी
ग़ज़ल
शर्म-ए-ईज़ा से मिरे दिल को यक़ीं है ऐ मौत
मुँह न दिखलाएगी सुब्ह-ए-शब-ए-हिज्राँ मुझ को
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
जेब में कुछ भी नहीं दिल है अमीरों जैसा
हाथ ख़ाली हैं मगर ख़ू-ए-अता रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
शब को जब अबरू-ओ-मिज़्गाँ की सफ़-आराई हुई
शोख़ियों में दब गई शर्म-ओ-हया आई हुई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
न निभने देगा दिल-ए-ज़ार ओ बे-क़रार लिहाज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
शर्म ऐ नाला-ए-दिल ख़ाना-ए-अग़्यार में भी
जोश-ए-अफ़्ग़ान-ए-अज़ा-बार की अफ़्वाहें हैं