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ग़ज़ल
वो हर्फ़-ए-आरज़ू जिस पर मुकम्मल ज़ब्त है अब तक
कहीं ऐसा न हो शर्मिंदा-ए-इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
दिल में शर्मिंदा हैं एहसास-ए-ख़ता रखते हैं
हम गुनहगार हैं पर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
होते रहोगे ता-ब-के शर्मिंदा-ए-एहसान-ए-ग़ैर
यारो यहाँ की चंद-रोज़ा ज़िंदगी के वास्ते
रहबर ताबानी दरियाबादी
ग़ज़ल
मिलेगी दाद कुछ अहल-ए-नज़र से मुझ को ऐ 'सफ़दर'
मिरा ज़ेहन-ए-रसा शर्मिंदा-ए-अहल-ए-ज़माँ होगा