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ग़ज़ल
किस किस को तुम भूल गए हो ग़ौर से देखो बादा-कशो
शीश-महल के रहने वाले पत्थर ढोने वाले हैं
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
यूँ पीर-ए-मुग़ाँ शेख़-ए-हरम से हुए यक-जाँ
मय-ख़ाने में कम-ज़र्फ़ी-ए-परहेज़ बहुत है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
जो शीश-महल में बैठे हुए मज़दूर की बातें करते हैं
ओबैदुर रहमान
ग़ज़ल
सरासर ताख़तन को शश-जिहत यक-अर्सा जौलाँ था
हुआ वामांदगी से रह-रवाँ की फ़र्क़ मंज़िल का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
नए मंसूर हैं सदियों पुराने शेख़-ओ-क़ाज़ी हैं
न फ़तवे कुफ़्र के बदले न उज़्र-ए-दार ही बदला