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ग़ज़ल
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
और फिर तन्हाई की हम-साएगी चारों तरफ़
मुहम्मद याक़ूब आमिर
ग़ज़ल
शोर-ओ-ग़ुल आहें कराहें और अलम पैहम था 'शाद'
रात मेरे दिल की बस्ती का अजब मौसम था 'शाद'
शमशाद शाद
ग़ज़ल
शोर-ओ-ग़ुल आहें कराहें और अलम पैहम था 'शाद'
रात मेरे दिल की बस्ती का 'अजब मौसम था 'शाद'
शमशाद शाद
ग़ज़ल
तिरे शहर से निकलते ही मिज़ाज-ए-दहर ला ही
न वो रब्त-ए-शबनम-ओ-गुल न वो बाद-ए-सुब्ह-गाही
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
यही जमाल-ए-गुल-ओ-सुख़न है तो आ चमन से धुआँ उठावें
रविश रविश पर बिछे रहेंगे ये लाला-ओ-गुल के दाम कब तक
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
मुझे 'शोर' दे रहे हैं वो फ़रेब-ए-तेज़-गामी
कि जो दो क़दम भी चलते तो न ए'तिबार होता
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
मुसल्लम गुल-कदों की लाला-सामानी मगर हमदम
शरार-ओ-बर्क़ को भी मो'तबर कहना ही पड़ता है
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
मैं जिस 'आलम में हूँ अपनी जगह ऐ 'शोर' तन्हा हूँ
जुदा हो जिस की मंज़िल वो रहीन-ए-कारवाँ क्यूँ हो
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
मैं जिस आलम में हूँ अपनी जगह ऐ 'शोर' तन्हा हूँ
जुदा हो जिस की मंज़िल वो रहीन-ए-कारवाँ क्यूँ हो
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
'शोर' ख़ामोश नहीं मेरे ही ज़िंदाँ के चराग़
शहर-ए-ख़ूबाँ भी चराग़ाँ नहीं होने पाता
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
गुल का क्या ज़िक्र कि ऐ दोस्त मिरे दामन पर
एक मुद्दत से किसी ख़ार का एहसाँ भी नहीं