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ग़ज़ल
लकड़ी की दो मेज़ें हैं इक लोहे की अलमारी है
इक शाइर के कमरे जैसी हम ने उम्र गुज़ारी है
सिदरा सहर इमरान
ग़ज़ल
बाग़बाँ गुलशन-ए-आलम का मैं वो बुलबुल हूँ
ताएर-ए-सिदरा कहा करता है उस्ताद मुझे
मर्दान अली खां राना
ग़ज़ल
बरहना-सर आबला-गज़ीदा शिकस्ता-दिल पैरहन-दरीदा
मक़ाम-ए-सिदरा पे सोच में हूँ कोई है पर्दा-दरी की सूरत
सरवर आलम राज़
ग़ज़ल
दम-ए-सुब्ह-ए-अज़ल से मैं नवा-संजों में हूँ तेरे
बताया बुलबुल-ए-सिदरा ने अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ मुझ को
नज़्म तबातबाई
ग़ज़ल
जागते दिन की गली में रात आँखें मल रही है
वक़्त गुज़रा जा रहा है धूप छत से टल रही है