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ग़ज़ल
जब भी मंज़िल तिरे दामन में सिमट जाती है
ज़िंदगी ख़ुद को भी गुमनाम नज़र आती है
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
ग़ज़ल
जाम था ख़ुम था सुबू था मजमा-ए-अहबाब था
शैख़ का इन सब में चेहरा किस क़दर शादाब था
हाशिम अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
आँख के साहिल पर आते ही अश्क हमारे डूब गए
ग़म का सावन इतना बरसा सारे सहारे डूब गए
सय्यद ज़िया अल्वी
ग़ज़ल
बन के किस शान से बैठा सर-ए-मिंबर वाइ'ज़
नख़वत-ओ-उज्ब हयूला है तो पैकर वाइ'ज़
मोहम्मद ज़करिय्या ख़ान
ग़ज़ल
मआल-ए-हासिल-ए-ग़म को ग़म-ए-हासिल समझते हैं
फ़रेब-ए-जादा-ए-मंज़िल को हम मंज़िल समझते हैं
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
ग़ज़ल
शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए
कभी लिपटे बन के वो चाँदनी कभी चाँद बन के जुदा हुए