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ग़ज़ल
हुआ ऐ 'फ़ैज़' मा'लूम एक मुद्दत में हमें थी वो
जपा करते थे जिस के नाम की दिन-रात सिमरन हम
फैज़ दकनी
ग़ज़ल
पिया के नाँव की सिमरन किया चाहूँ करूँ किस सीं
न तस्बीह है न सिमरन है न कंठी है न माला है
पंडित चंद्र भान बरहमन
ग़ज़ल
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
मैं नज़र से पी रहा हूँ ये समाँ बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए