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ग़ज़ल
शर्म से तुम को सिमटना है तो सिम्टो हुस्न से
दिल में बन जाओ सुवैदा पुतलियों में तिल बनो
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ भी अब हुई जाती है तंग
और भी कुछ ऐ जुनूँ वालो अभी सिम्टो ज़रा
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब
पहले थी इक अजब फ़ज़ा और जो पुर-फ़ज़ा भी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
उस की हथेली के दामन में सारे मौसम सिमटे थे
उस के हाथ में जागी मैं और उस के हाथ से उजली मैं
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
अपने अपने दिल के अंदर सिमटे हुए हैं हम दोनों
गुम-सुम गुम-सुम मैं भी बहुत हूँ खोया खोया तू भी है
फ़राग़ रोहवी
ग़ज़ल
ये कब तक सीम-ओ-ज़र के जंगलों में मश्क़-ए-ख़ूँ-ख़्वारी
ये इंसानों की बस्ती है अब इंसानों में आ जाओ