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ग़ज़ल
तरस खाते हैं जब अपने सिसक उठती है ख़ुद्दारी
हर इक ख़ुद्दार इंसाँ को इनायत तोड़ देती है
जावेद नसीमी
ग़ज़ल
पिसे दिल हज़ारों तड़प गए जो सिसक रहे थे वो मर गए
उठे फ़ित्ने हश्र बपा हुआ ये अजीब तर्ज़-ए-ख़िराम है
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
न जाने कब से सिसक रहा था क़रीब आते झिजक रहा था
मकाँ की दहलीज़ से वो जब अश्क-बार उतरा तो मैं ने देखा
ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल
मिरे शबिस्ताँ के पास कोई बुरी तरह कल सिसक रहा था
मैं उस के सीने से लग के बोला नहीं उदासी नहीं उदासी
आयुष चराग़
ग़ज़ल
वो एक लड़की जो ख़ंदा-लब थी न जाने क्यूँ चश्म-तर गई वो
अभी तो बैठी सिसक रही थी अभी न जाने किधर गई वो
सूफ़िया अनजुम ताज
ग़ज़ल
'कैफ़' यूँ आग़ोश-ए-फ़न में ज़ेहन को नींद आ गई
जैसे माँ की गोद में बच्चा सिसक कर सो गया
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
दिखा रहा है कि ग़म नहीं है तुझे बिछड़ कर
तू कितना अंदर सिसक रहा है मुझे पता है