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ग़ज़ल
जैसे दरवाज़ा वा कर के निकला है कोई कमरे से
जैसे इक दो लम्हे गुज़रे सोफ़े पर कोई बैठा था
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
हो नहीं सकती अना इक ख़ाकसारी से बुलंद
बोरिए में जो मसर्रत है वो सोफ़े में नहीं
मक़सूद अनवर मक़सूद
ग़ज़ल
दयार-ए-ग़ैर में हैं और यही है बूद-ओ-बाश अपनी
किसी सोफ़े पे सोते हैं मशीं से चाय पीते हैं
अशफ़ाक़ शाहीन
ग़ज़ल
मिरे चारा-गर को नवेद हो सफ़-ए-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर वो हिसाब आज चुका दिया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
जो बैठा है सफ़-ए-मातम बिछाए मर्ग-ए-ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में वो दानिश-वर है ख़तरे में