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ग़ज़ल
फ़रोग़-ए-बादा से रौशन हुई तक़दीर-ए-मय-ख़ाना
कि है हर बादा-कश रौशन चराग़-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना
साहिर देहल्वी
ग़ज़ल
हम जो मस्जिद से दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे
बढ़ के ये बात ख़ुदा जाने कहाँ तक पहुँचे
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
रिंदों में यूँ ही बख़्शिश-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहे
हो लाख क़हत फिर भी ये दरिया रवाँ रहे
अब्दुस्सलाम नदवी
ग़ज़ल
जिगर बरेलवी
ग़ज़ल
ठहर ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हम भी साथ चलते हैं
उठा लेने दे फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ पहले
अर्श सहबाई
ग़ज़ल
याँ बादा-ए-अहमर के छलकते हैं जो साग़र
ऐ पीर-ए-मुग़ाँ देख कि है सारी दुकाँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
सोहबत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ में ये खुली अज़्मत-ए-इश्क़
अक़्ल भी दुर्द-ए-तह-ए-जाम हुई जाती है