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ग़ज़ल
गरचे है मेरी जुस्तुजू दैर ओ हरम की नक़्शा-बंद
मेरी फ़ुग़ाँ से रुस्तख़ेज़ काबा ओ सोमनात में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हुआ ऐ 'फ़ैज़' मा'लूम एक मुद्दत में हमें थी वो
जपा करते थे जिस के नाम की दिन-रात सिमरन हम
फैज़ दकनी
ग़ज़ल
गई तस्बीह उस की नज़्अ' में कब 'मीर' के दिल से
उसी के नाम की सुमरन थी जब मुनक्का ढलकता था
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पिया के नाँव की सिमरन किया चाहूँ करूँ किस सीं
न तस्बीह है न सिमरन है न कंठी है न माला है