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ग़ज़ल
बे-गुनाही जुर्म था अपना सो इस कोशिश में हूँ
सुर्ख़-रू मैं भी रहूँ क़ातिल भी शर्मिंदा न हो
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह न जोश-ए-नुमू से था
जो फूल सुर्ख़-रू था ख़िज़ाँ के लहू से था