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ग़ज़ल
क्या बला की शाम थी सुब्हों शबों के दरमियाँ
और मैं उन मंज़िलों पर था जहाँ कोई न था
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
इस अपनी किरन को आती हुई सुब्हों के हवाले करना है
काँटों से उलझ कर जीना है फूलों से लिपट कर मरना है
मजीद अमजद
ग़ज़ल
किसी बे-मेहर-सुब्हों को अता की रौशनी हम ने
कई ना मेहरबाँ रातों को भी हम मेहरबाँ समझे
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
मिरी कितनी सोचती सुब्हों को ये ख़याल ज़हर पिला गया
किसी तपते लम्हे की आह है कि ख़िराम-ए-मौज-ए-नसीम है